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Wednesday, January 22, 2025




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satat vikas in hindi

 सतत विकास क्या है satat vikas kya hai सतत विकास pdf

आर्थ‍िक विकास को जल्‍दी से प्राप्‍त करने की इच्‍छा से प्राकृतिक संसाधनों के अधिक से अधिक दोहन करना ज्‍यादा ऊर्जा की खपत करना,  एवं  प्रदूषण प्रोद्योगिकी को बढ़ावा देना है। जिससे बडे पैमाने पर औद्योगीकरण एवं परिवहन का ज्‍यादा विस्‍तार, संचार के साथ अन्‍य आधारिक संरचना एवं जनसंख्‍या वृद्धि के होने के कारण स्‍वच्‍छ पर्यावरण एवं सुद़ढ़ प्राकृतिक संसाधनों के संरंक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पर्यावरणीय क्ष्‍ाति न केवल प्रथम पीढ़ी के लिए भी हानिकारक होती है। दूसरे शब्‍दों में यह पर्यावर्णिक पहलुओं पर कोई विचार किये बिना आर्थिक विकास न केवल वर्तमान पीढी को बल्कि भावी   पीढि़यों के जीवन की गुणवत्‍ता को हानि पहुचाती है। इसलिए आर्थिक विकास के साथ एवं पर्यावरण सुरक्षा की आवश्‍यकता के बीच संतुलन को बनाये रखने के उद्देश्‍य से ही सतत विकास की  अवधारणा में विकसिक हुई  है। 

सतत विकास से आप क्या समझते हैं satat vikas se aap kya samajhte hain

सतत विकास वर्तमान एवं भावी पीढि़यों की अन्‍तर में कमी  से सम्‍बंधित है सतत विकास में इस बात की चिन्‍ता होती होती हैकि विकास हेतु भावी पीढ़ी  की सक्षमता वर्तमान पीढ़ी के समान हो । आर्थिक विकास तभी सतत विकास कहलाता है। जबकी कुल पूँजी परिसम्‍पत्ति का भण्‍डार समय के साथ या तो परिवर्तित न हो या उसमें वृद्धि न हो । इस कुल पूँजी परिसम्‍पत्ति में विनिर्माण पूँजी, मानव पूँजी, सामाजिक पूँजी, तथा पर्यावरण पूँजी भी शामिल की जाती है। 

सतत विकास आर्थिक कार्य में कुशलता तथा पीढी  समान्‍ता में अन्‍तर और सामाजिक महत्‍व के क्षेत्रों एवं पर्यावर्णिक संरक्षण के तत्‍वों को एक साथ मिलाना है। 

सतत विकास परिभाषा । सतत विकास की परिभाषा क्या है । सतत विकास किसे कहते हैं
सतत विकास का अर्थ एवं परिभाषा

ब्रन्‍टलैण्‍ड कमीशन (1987) के अनुसार - '' भावी पीढि़यों की सक्षमता में समझौता कियो बिना वर्तमान पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करना हि सतत विकास कहलाता है।''

सतत विकास के उद्देश्य । सतत विकास के लक्ष्य । सतत विकास लक्ष्य 3


1) सतत् विकास का प्रमुख उद्देश्‍य आर्थिक क्रियाकलापों के विशुद्ध लाभों का अधिकतम करना होता है। 

 2) सतत् विकास के लिए आवश्‍यक है कि उत्‍पादक परिसम्‍पत्तियों (भौतिक, मानवीय, पर्यावर्णिक ) आदि सभी के स्‍टॉक में संरक्षित करके रखा जाय। 

 3) गरीबों की मूलभूत आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिए एक सामाजिक सुरक्षा तन्‍त्र प्रदान किया जाय ।


सतत विकास की विशेषताओं | satat vikas ki visheshtaen

1) वास्‍तविक प्रति व्‍यक्ति आय में वृद्धि - सतत विकास मे प्रति व्‍यक्ति वास्‍तविक आय में वृद्धि होनी चाहिए और यह वृद्धि लम्‍बे समय तक होनी चाहिए । 

2) प्राकृतिक साधनों का विवेकपूर्ण प्रयोग - सतत् विकास में प्राकृतिक साधनों का विवेकपूर्ण ढंग से दोहन किया जाना चाहिए दूसरे शब्‍दों में प्राकृतिक साधनों का ज्‍यादा ज्‍यादा दोहन नहीं करना चाहिए । 

3) भावी पीढ़ी की सक्षमता में कमी नहीं - सतत् विकास में वर्तमान पीढी के आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए भावी पीढ़ी की सक्षमता में किसी प्रकार की  कोई कमी  नहीं होनी चाहिए । जैसे कि पर्यावरण  पूँजी - तेल, खनिज,वन आदि का उत्‍पादन इस प्रकार किया जाये कि वह इतनी ही मात्रा में बचा रहें। जिससे भावी पीढ़ी को आवश्‍यकता को भी पूरा किया जा सके। 

4) पर्यावरण की सुरक्षा - सतत् विकास में जीवन की स्‍तर में बढ़ाने के साथ पर्यावरण  संरक्षण का भी ध्‍यान रखा जाता है। यह उन आर्थिक क्रियाओं को या कार्यों की मान्‍यता नहीं देता है जिससे की जीवन की गुणवत्‍ता मे कमी  करते है। 

satat vikas ko mapna

सतत विकास की माप । सतत विकास को मापना कठिन क्यों है?

सतत् विकास को मापने के लिए सूचक बनाये गये है । उनमें अधिकांशत: आर्थिक व पर्यावरण जगत से संबंधित है। इसमें हरित लेखाकरण सर्वाधिक चर्चित है। 

अभी तक राष्‍ट्रीय आय में  वृद्धि को हि आर्थिक विकास का प्रमुख संकेत माना गया है। सतत् विकास की गणना करने समय पर प्राकृतिक संसाधनों की कमियों पर ध्‍यान नहीं दिया जाता है। अत: हरिक लेखाकरण में प्राकृतिक संसाधनों की क्षति या पर्यावर्णिक गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए होने वाले व्‍यय को ध्‍यान रखा जाता है।

हरित लेखाकरण के अन्‍तर्गत स्थिर किमतों पर शुद्ध राष्‍ट्रीय आय में पर्यावर्णिक गुणवत्ता को बनाये रखने पर होने वाले खर्चा को समायोजित किया जाता है। 

हरित राष्‍ट्रीय आय = स्थिर मूल्‍यों शुद्ध राष्‍ट्रीय आय - प्राकृतिक साधनों एवं पर्यावर्णिक गुणवत्ता में कमी । 

हरित लेखाकरण आर्थिक विकास का एक उपयोगी संकेतक हो सकता है, परन्‍तु राष्‍ट्रीय आय लेखों में पर्यावर्णिक लागत, प्राकृतिक पूजी  आदि के सम्‍बन्‍ध में सही  सांख्यिकीय अनुमान न लगा सकने के कारण इसका विकास बहुत धीमा हो रहा है। 


Thursday, December 12, 2024

 संगणना विधि का क्या अर्थ है?

संगणना विधि का क्या अर्थ है इसके गुण दोष?

संगणना विधियाँ क्या हैं?

संगणना का मतलब क्या होता है?

संगणना क्या है

संगणना रीति

संगणना विधि के गुण लिखो

संगणना विधि का क्या अर्थ है इसके गुण दोष बताइए

संगणना अनुसंधान किसे कहते हैं



संगणना रीति

अनुसंधान का जो क्षेत्र होता है उपयोग होने वाली सम्‍पूर्ण इकाईया सामूह के रूप में समग्र कहलाती है। संगणना रीति के में समग्र की सभी इकाइयों का अध्‍ययन किया जाता है तथा उस इकाई से निकर्ष निकाला जाता है। 

जैसे - जनगणना , उत्‍पादन इसी रीति के अन्‍तर्गत की जाती है।  



संगणना विधि का क्या अर्थ है इसके गुण दोष बताइए

संगणना रीति के गुण - 


1. वैज्ञानिक - यह पद्धति ज्‍यादा वैज्ञानिक ढंग की होती है क्‍योंकि इसमें समग्र की सभी इकाइयों का 

                              अध्‍ययन किया जाता है। 


2. शुद्धता के साथ विश्‍वासनीय होना -  सभी इकाईयों की सूचनाओं को प्राप्‍त कर लिया जाता है जिससे 

                      कारण से प्राप्‍त आकडों में अधिक शुद्धता के साथ विश्‍वासनीय भी हो जाता है। 


3. पक्षपातरहित - इस प्रणाली में पक्षपात की सम्‍भावना नहीं होती है या कम हो पाती है। 


4. कुछ परिस्थितियों में आवश्‍यक होना - इस रीति का प्रयोग जब की जाती है समग्र की इकाइयों में 

                ऐसी  जानकारी प्राप्‍त करनी हो जो कि व्‍यक्तिगत हो । 

                  जैसे - किसी व्‍यक्ति या छोटे बच्‍चे से जानकारी लेनी हो  कि उनके पिता का क्‍या नाम है

  उनकी आय कितनी है

  उनका व्‍यवसाय क्‍या है

5; विविधता - जब समग्र की इकाइयों में विविधता हो तब यह रीति ही लाभ दायक रहती है। 


6. अप्रत्‍यक्ष अध्‍ययन - इस रीति से कुछ ऐसी जानकारी प्राप्‍त हो जाती है जो अनुसंधान में उपयोगी है। 

जैसे - जब जनगणना किया जाता है तो वहा पर साक्षरता, बेरोजगारी, आय आदि के बारे 

                                       में जानकारी प्राप्‍त हो जाती है। 


संगणना रीति के दोष या सीमाऍं  - 

1. ज्‍यादा खर्चीला - इस पद्धति में समग्र की प्रत्‍येक इकाई से जुडने के लिए ज्‍यादा खर्च होता है

2. परिस्थितियों के अनुसार अनुपयुक्‍त - विशेष प्रकार की स्थितियों में इस प्रकार की पद्धति अनुपयुक्‍त 

                 होती है जैसे - समग्र का अनन्‍त होने पर तथा समग्र नाशवान होने पर 


3. ज्‍यादा समय तथा कठिन परिश्रम - इस विधि के द्वारा अनुसंधान करने में अधिक समय लगता है। तथा 

               इसके साथ हि कठिन परिश्रम भी करना पडता है। 





Friday, December 6, 2024

द्वितीयक आंकड़ों के स्रोत कौन कौन से हैं विस्तार से समझाइए?
द्वितीय सामान क्या है?
प्राथमिक और द्वितीयक समंक में क्या अंतर है?
अप्रकाशित स्रोत कौन कौन से हैं?
प्राथमिक समंक के स्रोत
द्वितीयक समंकों का स्रोत है
द्वितीयक आंकड़ों के पांच स्रोत बताइए
द्वितीयक स्रोत
प्राथमिक समंक एवं द्वितीयक समंक में कोई चार अंतर लिखिए
द्वितीयक आंकड़ों के उदाहरण
द्वितीयक समंक का स्रोत क्या है?
द्वितीयक आँकड़ों का स्रोत क्या है?
प्राथमिक और द्वितीयक समंक क्या है?


 द्वितीय समंकों के प्रमुख स्‍त्रोत - 
द्वितीय समंकों के प्रमुख स्‍त्रोत निम्‍नलिखित है- 


1) भारतीय जनगणना करना - जनगणना का अर्थ है - कि किसी प्रदेश में रहने वाले लोगों के सम्‍बन्‍ध निश्‍चत समय पर सरकार द्वारा एक साथ जनसंख्‍या को एकत्रित करना । इस जनगणना के आधार पर हम देश की जनसंख्‍या का प्रवृति, व्‍यावायिक संरचना, नगरीकरण, प्रवासिता का अध्‍ययन कर सकते है। 

भारत देश में जनगणना का कार्य सन 1881 से शुरू हो गया तथा प्रत्‍येक 10 वर्ष के अन्‍तराल  पर जनगणना की जाती है। भारत सरकार के महा पंजीयक एवं जनगणना आयुक्‍त कार्यालय की स्‍थापना सन  1949  में हुई और जनगणना का कार्य इसे दे दिया गया । 


2) राष्‍ट्रीय न्‍यादर्श सर्वेक्षण संगठन NSSO -  वित्त मंत्रालय में NSSO की स्‍थापना सन 1950 में की गई तथा इस संगठन को मन्त्रिमण्‍डलीय सचिवालय के द्वारा स्‍थानान्तिरित कर दिया गया । NSSO संगठन का प्रमुख उद्देश्‍य राष्‍ट्रीय आय की गणना, आयोजन तथा नीति निर्धारण के लिए आँकडें को एकत्रित करना । 


NSSO का अध्‍यक्ष प्रधान अधिकारी होता है। इसके चार प्रमुख विभाग होते है- 

1- सर्वेक्षण डिजायन एवं अनुसन्‍धान विभाग 

2- क्षे‍त्रीय कार्य विभाग 

3- आँकड़ा संयोजन करना तथा

4- समन्‍वय एवं प्रकाश विभाग । 


ये संगठन समाज की आर्थिक सर्वेक्षण का कार्य करती है- यह कार्य पूर्व निर्धारित 10 वर्ष  कार्यक्रम के अनुसार चलता है। इसके अन्‍तर्गत - 

1- जनसांख्यिकी, स्‍वास्‍थ्‍य ओर परिवार कल्‍याण 

2- सम्‍पत्ति ऋण तथा देयताऍं 

3- दस वर्ष मेें एक बार जोत तथा पशुपालन उद्योग 

4- रोजगार , ग्रामीण श्रमिक और उपभोक्‍ता व्‍यय 

5- प्रत्‍येक पॉंच साल बाद कृषि क्षेत्र के अलावा अन्‍य क्षेत्र में असंगठित उद्योगों के 

  सर्वेक्षण का कार्य किया जाता है। 


3) भारतीय रिजर्व बैंक -  बैंकिंग क्रिया - कलापों से सम्‍बन्धित समंकों के विश्‍लेषण के लिए सन 1945 में एक अनुसन्‍धान विभाग की भारतीय रिजर्व बैंक में स्‍थापना की  गयी । यह विभाग भुगतान संन्‍तुलन समंकों को भी रखता है। यह विभाग देश की आन्‍तरिक तथा बाह्य आर्थिक स्थिति के विषय में में अपना मुल्‍यांकन भी प्रतिवेदन के रूप में प्रस्‍तुत करना है। तथा मासिक आ‍धार पर रिजर्व बैंकक का बुलेटिन प्रकाशित करता है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट तथा रिपोर्ट ऑंन करेन्‍सी एण्‍ड  फाइनेन्‍स प्रकाशित करना है यह रिपोट अप्रैल से मार्च तक के आधार पर प्रस्‍तुत की जाती है। इसके अतिरिक्‍त बैंक वर्ष में एक बार वार्षिक रिपोर्ट तथा भारत में बैंकिग की प्रवृति एवं प्रगति सम्‍बन्‍धी रिपोर्ट भी प्रकाशित करता है।  वार्षिक रिपोर्ट में आर्थिक समीक्षा  जैसे - आर्थिक नीति का माहौल, अर्थव्‍यवस्‍था की स्थिति , मुद्रा ऋण व मूल्‍य , सरकारी वित्‍त वित्‍तीय बाजार बाह्रा क्षेत्र इत्‍यादि । 




द्वितीयक आँकड़ों के दो प्रकाशित स्रोत कौन-कौन से हैं?
अप्रकाशित स्रोत कौन कौन से हैं?
द्वितीय आंकड़ों से आप क्या समझते हैं?
प्रकाशित और अप्रकाशित स्रोत क्या हैं?

द्वितीयक आँकड़ों के दो प्रकाशित स्रोत कौन-कौन से हैं? अप्रकाशित स्रोत कौन कौन से हैं? द्वितीय आंकड़ों से आप क्या समझते हैं? प्रकाशित और अप्रकाशित स्रोत क्या हैं?


द्वितीयक समंक क्या है
द्वितीयक समंकों का स्रोत क्या है?
द्वितीयक स्रोत क्या है उदाहरण?
द्वितीयक आंकड़ों के प्रमुख स्रोत कौन कौन से हैं?
द्वितीयक समंकों के प्रयोग में क्या सावधानियां बरतनी चाहिए?
द्वितीयक आँकड़ों का उपयोग करने के लिए क्या सावधानियां हैं?
द्वितीयक आंकड़ों के प्रयोग में कौन कौन सी सावधानियां आवश्यक है?
द्वितीयक समंक का स्रोत क्या है?


 द्वितीय समंकों का संकलन 


जब किसी अन्‍य अनुसन्‍धानकर्त्‍ता द्वारा संकलित, विश्‍लेषित एवं प्रकाशित सांख्यिकीय सामग्री द्वितीयक समंक कहलाती है । द्वितीयक समंक प्रकाशित एवं अप्रकाशित हो सकते है। इसकी विवेचना नीचे निम्‍नलिखित है- 


(अ) प्रकाशित स्‍त्रोत - 

सरकारी एवं गैर- सरकारी संस्‍थाऍं विभिन्‍न विषयों पर सांख्यिकीय सामग्री प्रकाशित करती रहती है। इसका उपयोग सम्‍बन्धित विषय के शोधकर्त्ता करते है। 


1) सरकारी प्रकाशन - केन्‍द्रीय सरकार तथा राज्‍य सरकारों के विभिन्‍न मन्‍त्रालयों व विभागों द्वारा समय-समय पर विभिन्‍न विषयों से सम्‍बन्धित  समंक प्रकाशित होते रहते है। यह समंक शोधकर्त्ता के लिए ज्‍यादा विश्‍वासनीय के साथ उपयोगी होते है। 


2) समितियो व आयोगों के प्रकाशन - सरकार द्वारा अलग- अलग विषयो पर जॉच कराने तथा विशेषज्ञों की राय या विचार प्राप्‍त करने के लिए जाँच समितियों व आयोगों का गठन करती है। उनके प्रतिवेदनों में महत्‍वपूर्ण तथ्‍य होते है। जैसे- वित्त आयोग, आय वितरण जॉंच समिति, कृषि मूल्‍य आयोग आदि । 


3) अर्द्ध- सरकारी प्रकाशन - अर्द्ध- सरकारी संस्‍थाऍं जैसे- नगर महापालिकाऍं, नगर निगम, जिला परिषद् , पंचायतें आदि को समय - समय पर सार्वजनिक स्‍वास्‍थ्‍य, जन्‍म-मरण सम्‍बन्‍धी रिपोर्ट प्रकाशित करती है।


4) व्‍यापरिक संस्‍थाओं व परिषदों के प्रकाशन - अनेक प्रकार  की  बडी व्‍यापारिक संस्‍थाऍं  जैसे -  टाटा सन्‍स  लि.,  भारतीय वाणिज्‍य  एवं उद्योग संघ आदि स्‍कन्‍ध व‍िपणियॉं,  श्रम संघ अपने उत्‍पादन, लाभ आदि के बारे में समंक प्रकाशित कराते है। 


5) अनुसन्‍धान संस्‍थाओं के प्रकाशन - अनेक अनुसन्‍धान संस्‍थाऍं  एवं विश्‍वविद्यालय अपने शोधकार्यों के परिणाम प्रकाशित कराते हैं । जैसे - भारतीय सांख्यिकीय संस्‍थान, व्‍या‍परिक आर्थिक शोध की राष्‍ट्रीय परिषद् आदि ने अनेक प्रकार की रिपोर्टों को प्रकाशित किया है ।


6) पत्र- पत्रिकाऍं - समाचार - पत्र तथा पत्रिकाऍं जैसे - the economic times, commerce, Eastern economist आदि द्वारा प्रकाशित समंकों से अनेक उपयोगी सूचनाऍं प्राप्‍त होती है। 


7) अन्‍तर्राष्‍ट्रीय प्रकाशन - विभिन्‍न अन्‍तर्राष्‍ट्रीय संस्‍थाऍं जैसे - राष्‍ट्र संघ , अन्‍तर्राष्‍ट्रीय श्रम संघ, अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष महत्‍वपूर्ण समंकों का संकलन एवं प्रकाशन करते है। 


8) व्‍यक्तिगत अनुसन्‍धानकर्त्ता - यह अपने - अपने विषयों पर अनेक शोधकार्य करके उनके अनेक समंकों को प्रकाशित करते है। 


ब) अप्रकाशित स्‍त्रोत -

    अनेक अनुसन्‍धानकर्त्ता , व‍िभिन्‍न उद्देश्‍यों से सांख्यिकीय सामग्री संकलित करते हैंं जो अलग- अलग कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाती है। इस प्रकार से अप्रकाशित रूप से भी द्वितीय समंक उपलब्‍ध हो जाते है।  


द्वितीयक समंकों के प्रयोग सावधानियॉं -


द्वितीयक समंको का प्रयोग करने से पूर्व उसकी विधिवत जॉंच करनी चाहिए । इसके अतिरिक्‍त द्वितीयक समंकों के प्रयोग में निम्‍नलिखित सावधानियॉं रखनी चाहिए - 

1) समंक संकलनकर्त्ता विश्‍वासनीय हो तथा उसके समंक संकलन में सही तरीके से प्रयोग किया हो । 

2) समंक उद्देश्‍य के अनुकूल होने चाहिए ।

3) समंक पर्याप्‍त होने चाहिए । 

4) समंक संकलन का समय व उसकी परिस्थितियों का अध्‍ययन कर लेना चाहिए । 

5) इस बात को पूरी तरह से जॉच कर लेनी चाहिए कि पूर्व अनुसन्‍धान में प्रयुक्‍त सांख्यिकीय इकाइयों के अर्थ वर्तमान प्रयोग के अनुकूल है या नहीं । 

6)  द्वितीयक समंकों का उपयोग करते समय यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उनमें शुद्धता का स्‍तर क्‍या रखा गया था और उसे प्राप्‍त करने में कहॉं तक सफलता प्राप्‍त हुई । प्रकाशित समंकों की शुद्धता का स्‍तर उपयोगकर्त्ता  द्वारा प्राप्‍त किये जाने वाले अनुसन्‍धान के स्‍तर से कम नहीं होना चाहिए । 

7)  सजातीय दशाओं का अध्‍ययन करके विभिन्‍न स्‍त्रोतों द्वारा प्रकाशित समंकों की तुलना करके यह ज्ञात करना चाहिए कि उनमें अन्‍तर अधिक तो नहीं हैा यदि उनमें अन्‍तर बड़ा हो तों सर्वाधिक विश्‍वासनीय स्‍त्रोत से प्राप्‍त समंकों को लेना चाहिए । 

8) अनुसन्‍धानकर्ता को प्रस्‍तुत समंकों में से कुछ प‍रीक्षात्‍मक जॉंच करके यह देख लेना चाहिए कि वह विश्‍वासनीय है या नहीं 



 प्रश्‍नावली  एवं अनुसूची

जब प्राथमिक समंको के संकलन में हमेंशा प्रश्‍नावली के साथ अनुसूची का प्रयोग किया जाता है। प्रश्‍नावली प्रश्‍नों की ऐसी सूची तैयार होती है जिसमें प्रश्‍नों के उत्‍तर स्‍वयं सूचकों द्वारा भरे जाते है। अनुसूची प्रश्‍नों की वह सूची होती है जिसमें प्रश्‍नों के उत्‍तर प्रगणकों द्वारा सूचकों से पूछताछ करके भरे जाते है। 


प्रश्‍नावली  एवं अनुसूची में अन्‍तर

व्‍यवहार में प्रश्‍नावली एवं अनुसूची को एक ही  अर्थ में प्रयुक्‍त किया जाता है परन्‍तु  इसमें अन्‍तर होता है जो  कि नीचे बताया गया है। 


प्रश्‍नावली

अनुसूची

1. इसमें प्रश्‍नों के उत्‍तर स्‍वयं देता है।


2. प्राय: इसमें डाक के माध्‍यम से भेजकर सूचनाऍं को प्राप्‍त किया जाता है। 

3. उत्‍तरों के लिए रिक्‍त स्‍थान छोड़ना आवश्‍यक नहीं है।

4. सूचकों के प्रश्‍नों के समझने के लिए टिप्‍पणियॉं दी जाती है। 

1. इसमें प्रश्‍नों के उत्‍तर प्रगणक सूचकों से पूछताछ करके भरता है। 

2.अनुसूची में प्रगणक स्‍वयं के पास जाकर सूचनाऍं को एकत्रित करते है। 

3. उत्‍तरों के लिए स्‍थान छोडना आवश्‍यक है। 

4. टिप्‍पणियॉं देने की आवश्‍यक नहीं होती है, क्‍योंकि प्रगणक स्‍वयं प्रश्‍न को समझता जा सकता हैै। 


 एक अच्‍छी एवं आदर्श प्रश्‍नावली के गुुण - जो निम्‍नलिखित है- 

1) प्रश्‍नावली का आकार छोटा होना चाहिए । 
2) प्रश्‍नावली में पूछे गये प्रश्‍न सरल एवं स्‍पष्‍ट होने चाहिए । 
3) प्रश्‍न संक्षिप्‍त होने चाहिए जिनके उत्‍तर हॉं या न में देना सम्‍भव हो ।
4) प्रश्‍नों की प्रकृति सरल विकल्‍प, बहुवि‍कल्‍प प्रश्‍न, विशिष्‍ट सूना देने वाले प्रश्‍न तथा खुले प्रश्‍न की हो सकती है। 
5) प्रश्‍नो के गठन में उचित शब्‍दों का प्रयोग होना चाहिए ।
6) पूछे गये प्रश्‍न अनुसन्‍धान से प्रत्‍यक्ष सम्‍बन्धित होने चाहिए। 
7) प्रश्‍न पूछते समय सूचक की भावनाओं को ठेस नहीं पहुुचनी चाहिए 
8) प्रश्‍न एक निश्चित, तर्कपूर्ण तथा सूूव्‍यवस्थित क्रम में होना चाहिए ।
9) प्रश्‍नावली भरने के निर्देश स्‍पष्‍ट व संक्षिप्‍त दिये होने चाहिए। 
10) प्रश्‍न ऐसे होने चाहिए जिनके उत्‍तरों की यथार्थता की परस्‍पर जॉच सम्‍भव हो। 

 भारत में कीमत वृद्धि को रोकने हेतु सरकारी उपाय एवं उपचार से सुझाव 


1) मौद्रिक नीति - रिजर्व बैंक के द्वारा समय - समय पर मौद्रिक नीति के अनुसार मुद्रा की जो आपूर्ति होती है उसको कम करने का प्रयास किये है। जिसके कारण जमा राशियों पर ब्‍याज की दरों को बढ़ा देने से जो लोगों के पास मुद्रा होता है उसको अधिक से अधिक मुद्रा को जमा करने का प्रयास करते है। और उधर उधार या कि ऋण की ब्‍याज को अधिक बढा देते है जिससे की लोग कम उधार या ऋण प्राप्‍त कर सके । ताकि मुद्रा लोगों से सरकार के पास पहुच जाये। रिजर्व बैंक द्वारा सरकार को दिये जाने वाले ऋण को कम करने के लिए अस्‍थायी ट्रेजरी बिल जारी किये गये है। 


2) राजकोषीय नीति - राजकोषीय निति के अन्‍तर्गत सरकार ने राजकोषीय घाटे में कमी की है । कर प्रणाली को इस प्रकार से बनाया गया है जिसके कारण विलासिता की वस्‍तुओं का उपभोग कम हो तथा बचतो में वृद्धि हो । परन्‍तु सरकार के बढानें गैर- योजनागत व्‍यय के कारण सरकार राजकोषीय नीति द्वारा सार्वजनिक खर्च को कम करने में असफल रही है। 


3) सार्वजन‍िक वितरण प्रणाली - सरकार के द्वारा आवश्‍यक वस्‍तुओं जैसे - गेहू,चावल, चीनी, खाद्य तेल, मिट्टी का तेल , आदि की  मूल्‍य या कीमत कम मूल्‍य पर उपलब्‍ध कराने के लिए देश में उचित कीमत की दूकाने का जाल उपलब्‍ध है इन दुकानों पर राशन कार्ड धारियों को यह वस्‍तुए उपलब्‍ध होती हैं। 31 मार्च 2002 को देश में इस प्रकार की 4.74 लाख दुकानें थी । 


4) आवश्‍यक वस्‍तुओं का  आयात - देश में आवश्‍यक वस्‍तुओं की  आपूर्ति हमेशा नियमित रूप  होती रही है तथा कीमतें ज्‍यादा न बढ़े इसके लिए सरकार ने आयात नीति में परिवर्तन किये है। जैसे - चीनी, कपास, खाद्य तेल, खाद्यान्‍न आदि वस्‍तुओं के आयातों को बढ़ाने के लिए सरकार समय - समय पर नये - नये कदम उठाये है । 


5) न्‍यूनतम समर्थित  एवं वसूली मूल्‍यों की घोषणा - कृषि पदार्थों के कीमतों में अधिक मूल्‍य न हो तथा उत्‍पादन पर्याप्‍त मात्रा में हो सके इसके लिए सरकार अनेक कृषि पदार्थों के की न्‍यूनतम समर्थित व वसूली मूल्‍यों की घोषणा करती है। 


6) उत्‍पादन व उत्‍पादिता को प्रोत्‍साहन करना - सरकार ने कृषि व औद्योगिक उत्‍पादन व उत्‍पादिता को बढ़ाने के लिए अनेक उपाय किये है । कृषि उत्‍पादन में बढाने के लिए हरित क्रान्ति  प्रारम्‍भ की गयी । और किसानों को बीज  व उर्वरक  कम मूल्‍य पर उपलब्‍ध कराये गये है। कृषि की आय को आयकर से मुक्‍त रखा गया है। इसी प्रकार से औद्योगिक क्षेत्र में कोयला, बिजली आदि सस्‍ती कीमतों पर उपलब्‍ध कराये। जिससे आधारित संरचनाओं जैसे - परिवहन, संचार आदि का व‍िकास हो । 


कीमत वृद्धि के उचार हेतु सुझाव 

1) मौद्रिक नीति - सरकार ने समय - समय पर मौद्रिक नीति के द्वारा कीमतों को नियंत्रित करने का प्रयास किये है लेकिन कुछ सफलता मिली है। वास्‍तवमें इसके लिए देश में बैंकिग तथा व‍ित्‍तीय संस्‍थाओं का व‍िकास किया जाना चाहिए । व्‍यापारिक बैंकों को रिजर्व बैंक की नीति मानने के लिए बाध्‍य किया जाना चाहिए । जिससे मौद्रिक व राजकोषीय नीति में उचित समन्‍वय चाहिए । 


2) राजकोषीय नीति - सरकार को कडे़ नियम से व‍ित्‍तीय अनुशासन की नीति व उस पर अमल की नीति को बनाना चाहिए । गैर -योजनागत खर्च में कमी करना आवश्‍यक है । बजट का घाटा एक निश्चित सीमा से आगे नहीं बढाना चाहिए । सरकारी व‍िभागों में अनुत्‍पादकीय व प्रशासकीय व्‍ययों में कटौती करनी बहुत आवश्‍यक है। 


3) व्‍यापारिक नीति - सरकार ने आयातों के द्वारा कीमतों की वृद्धि रोकने के प्रयास किये हैं परन्‍तु आयात प्रतिस्‍थापन पर अधिक नहीं दिया जाता है। अत: इस दिशा में व‍िशेष प्रयास किये जाये । आवश्‍यक वस्‍तुओं के निर्यात को कम किया जाना चाहिए । जो वस्‍तुऍं आयात की जाती हैं उनके निर्णय उचित समय पर लिये जाये । 


4) कीमत नीति - सरकार ने अपने घाटे कोे पूरा करने के लिए पेट्रोल, कोयला, व‍िद्वुत जैसी बुनियादी चीजों की मूल्‍यों बहुत बढ़ा दी है। इससे अन्‍य वस्‍तुओं की कीमतें भी तेजी से बढ़ती है। अत: सार्वजनिक क्षेत्र के अन्‍य उद्यमों की कार्यकुशलता को बढ़ाया जाय व इन वस्‍तुओं की कीमतें तीव्रगति से न बढ़ाया जायें। न्‍यूनतम समर्थित मूल्‍य व वसूली मूल्‍यों की घोषणा करते समय उपभोक्‍ताओं के हितों को भी ध्‍यान में रखना चाहिए । 


5) व‍ितरण नीति - सरकार ने जो उचित कीमत की दुकानें खोली है वह ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक से अधिक खोली जायें। इन दुकानों के द्वारा व‍ितरित आवश्‍यक वस्‍तुओं की संख्‍या में वृद्धि की जाय। इसके अतिरक्ति जमाखोरी व काला बाजारी को रोकने के लिए कउे कदम उठाये जाने चाहिए । 



 

kimat bridhhi ka parinam

कीमत वृद्धि का परिणाम - 


1) विनियोगों पर प्रतिकूल प्रभाव - 

 विनियोग की जाने वाली मुद्रा की राशि उतनी ही रहने पर भी वास्‍तवित राशि कम रह जाती  है। क्‍योकि कीमत में वृद्धि हो जाने के बाद कम संसाधनों को खरीदा जा सकता है। वास्‍तव में विनियोग कम होने के साथ-साथ संसाधन उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों उद्देश्‍य के बजाय सोना, जमीन आदि के रूप में सट्टे आदि की ओर मुद्रा का प्रभाव किया जाता है। 


2) घरेलू बचतों में कमी - 

कीमत तेजी से बढने के कारण देश के नागरिकों की बचत करने की क्षमता कम हो जाती है। यदि कीमत वृद्धि ब्‍याज की दर से अधिक है तो लोग बचत करना ठीक नहीं समझते है। और बचत कम होने लगती है। अत: सरकार को साधन प्राप्‍त करने के लिए बडी मात्रा में घाटे की वित्‍त व्‍यवस्‍था तथा विदेशी ऋण का सहारा लेना पडता है। 


3) अन्‍तर क्षेत्रीय व्‍यापार - 

भारत में कृषि पदार्थों की कीमतों में गैर-कृषि वस्‍तुओं की तुना में तेजी से वृद्धि होने के कारण अनतर क्षेत्रीय व्‍यापार का झुकाव कृषि क्षेत्र की ओर रहा है । इससे सरकार  को कृषि पर कर न होने कारण कर के रूप में राशि प्राप्‍त नहीं हो सकी  तथा गैर-कृषि क्षेत्र की लागतें ऊँचे कृषि मूल्‍य होने के कारण बढ़ गयी है। 


4)  व‍िदेशी भुगतान की समस्‍या - 

   मूल्‍य बढ़ने के कारण हमारे  देश में निर्यात होने वाली वस्‍तु अधिक महगी कीमत हो गयी है । तथा आयात होने वाली वस्‍तु कम कीमत के पड़ने लगे है । परिणामस्‍वरूप भुगतान की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो गयी है। इस स्थिति को देखते हुए सरकार द्वारा आयात की जाने वाली वस्‍तु पर रोक लगाये जिससे क‍ि हमारे औद्वोगिक उत्‍पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। जिससे होने वाली व‍िदेशी मूद्रा की चोरी और तस्‍करी जैसी बुराइयॉं उत्‍पन्‍न हो गयीं । 


5) आय तथा भार में असमानता - 

कीमतों में वृद्धि का लाभ उत्‍पादन कर्ता तथा व्‍यापारियों को होता है। उत्‍पादन कर्ता तथा व्‍याप‍ारियों की वस्‍तुओं का तेजी से मूल्‍य या कीमत बढ़ने पर तेजी से लाभ होता है। इस कारण से अन्‍य वर्ग के लोग जैसे श्रमिक / वेतन धारी की वास्‍त‍व‍िक आय कम हो जाती है। इस कारण से अन्‍य लोगों की आय में असमानता बढ़ जाती है। जो लोग निर्धन होते है तो वह लाभ से वंचित हो जातें है। इस कारण से अमीर वर्ग  पर कम भार पडता है और निर्धन लोगो को अधिक भार पडता है। 





भारत में कीमत वृद्धि का एक प्रमुख कारण क्या है?
कीमत में वृद्धि का क्या कारण है?
भारत में कीमत वृद्धि के कारण बताइए

कीमतों की प्रवृति से क्‍या आशय है

 कीमतों की प्रवृति से आशय यह है कि वस्‍तुओं की मूल्‍यों के निर्देशांक में होने वाले जो परिवर्तन

होता है तों जब मूल्‍य का निर्देशांक बढता है तो उसे कीमतों के प्रवृति को बढी़ हुई कहा जाता है।

ठीक इसके व‍िपरीत जब मूल्‍य या कीमत का निर्देशांक कम होता है तो उसको कीमतो की

प्रवृति को घटती हुई कहा जाता है। 


कीमतों की भूमिका -


1) निर्णय सम्‍बन्‍धी कार्य - 

 अर्थव्‍यवस्‍था में कौन सी वस्‍तुओं को कितना उत्‍पादन किया जायेगा और वस्‍तुओं का उत्‍पादन

करने का ढ़ंग क्‍या होगा आदि बातों से कीमतों के आधार पर निर्णय लिया जाता है। एक उद्यमी

उन वस्‍तुओं का उत्‍पादन करता है जिन वस्‍तुओं की मूल्‍य या कीमत अधिक होता है।

इससे यह स्‍पष्‍ट है कि वस्‍तुओं के उत्‍पादन में लागत कम हो और उस वस्‍तुओं से लाभ अधिक होते है

। अत: लाभ को देेखकर हि उत्‍पादन, व‍िनियोग एवं उत्‍पादन तकनीकी का चयन किया जाता है।

तथा लाभ वस्‍तुओं की कीमतों पर निर्भर करता है।

 

2) संसाधनों का आबंटन - हम सभी या उपभोक्‍ता की आवश्‍यकता असीमित होती है। तथा आय या साधन सीमित होते है।

हम लोग अपनी आय से ज्‍यादा से ज्‍यादा सन्‍तुष्टि प्राप्‍त करना चाहते है। हम अपनी आय को

व‍िभिन्‍न वस्‍तुओं को खरीदते समय इस प्रकार से देखते है कि सबसे ज्‍यादा किस वस्‍तु को खरीदने

में ज्‍यादा सन्‍तुष्टि प्राप्‍त होगी । जिन वस्‍तुओं को खरीदने  के लिए हमारे पास पैसा या खरीदने के

लिए क्रयशक्ति होती है उन्‍हे हम खरीद लेते है । और जिन वस्‍तुओं के लिए खरीदने के लिए

क्रयशक्ति नहीं होती है उन्‍हे हम नहीं खरीदते है। इस कारण से क्रेताओं के बीच वस्‍तुओं तथा

वस्‍तुओं के बीच साधनों का आबंटन कीमतों के द्वारा किया जाता है। 


3) आर्थिक प्रगति -  आर्थिक व‍िकास के लिए आवश्‍यक है कि देश में पूँजी की मात्रा को वृद्धि करना तथा

उत्‍पादन करने की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग होना चाहिए जिससे की कीमतों से लाभ

प्राप्‍त करने  में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है।  जिससे उद्यमी ज्‍यादा लाभ प्राप्‍त हो जिससे

अधिक पूँजी संचय हो और वह नये नये तकनीकि का प्रयोग करके ज्‍यादा से ज्‍यादा लाभ प्राप्‍त कर

सके । और इस प्रकार से कीमतों से आर्थिक व‍िकास करने में सहायक होता है। 


भारत में कीमतों की प्रवृति - 


नियोजन के समय में यदि कीमतों की प्रवृति को देखा जाय तो यह पता चलता है कि

भारत में प्रथम योजना में कीमतों के गिरावट का दौर कर रहा था। इस योजना के अन्‍तर्गत

थोक मूल्‍य सूचकांक में 17 प्रतिशत की गिरावट इुई थी। इसके बाद से कीमतों में निरन्‍तर

बढ़ने की प्रवृति रही है। और तीसरी योजना के बाद की समय में कीमते तेजी से बढ़ी है। 


योजनावधि के दशकों में भारत में थोक कीमत निर्देशांक नीचे चित्र में दिखाया गया है इन

निर्देशांकों से स्‍पष्‍ट रूप से सत्‍तर के दशक में कीमत निर्देशांक बहुत तेजी से बढ़ा है।

1950-51 में थोक कीमत निर्देशांक 6.8 था वह बढ़कर 2008-9 में 234 हो गया ।

इस प्रकार से इसमें 34  गुना वृद्धि हो गयी है। 

वर्ष 2004-5 से इस वर्ष को आधार वर्ष (2004-5 =100) मान कर थोक मूल्‍य निर्देशांक

की नई श्रृंखला जारी की गयी है । इस आधार पर थाेक कीमत का निर्देशांक 2005-06 में 104.5 था

जोे बढकर 2012-13 में 167.6 हो गया । 



वर्ष

निर्देशांक 

1950-51

1960-61

1970-71

1980-81

1990-91

2000-01

2008-09

2010-11

2012-13

6.8

7.9

14.3

36.8

73.7

155.7

234.0

143.0

167.0


थोक कीमत निदेशांक 


भारत में कीमत वृद्धि के कारण 


द्वितीय योजना के बाद भारत में कीमतों के बढ़ने की प्रवृति रही है ।

सरी योजना के बाद तो इसमें विशेष प्रकार से तेजी आयी है ।

अभी हाल में 1990- 91 के बाद कीमतें और तेजी से बढी है। 1990-91 में तो मुद्रास्‍फीति की दर

17 प्रतिशत के लगभग हो गयी थी । व‍ित्‍तीय वर्ष 2012-13 में भी दों अंको के लगभग बनी हुई थी। 


1) जनसंख्‍या की वृद्धि - सन् 1951 से जनसंख्‍या निरन्‍तर तेजी से वृद्धि हो रही है ।

जनसंख्‍या जो वर्ष 1950 में 36 करोड़ थी। वह वर्ष 2011 में बढ़कर 121.02 करोड हो गयी ।

इस प्रकार से पिछले 60 वर्षों से 85 करोड़ से अधिक जनसंख्‍या बढ़ रहीं है ।

जनसंख्‍या वृद्धि को भोजन, वस्‍त्र, ईधन आदि अनेक प्रकार की वस्‍तुऍं चाहिए  सरकार भी

इनके लिए शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, पानी आदि आधारभूत आवश्‍यकताओं की व्‍यवस्‍था करती है।

इस सब वस्‍तुओं  की  मॉंग में तेजी से वृद्धि के कारण कीमते बढ़ी है। 


2) सार्वजनिक खर्च में वृद्धि - योजना के समय पर सरकार के माध्‍यम से किये जाने

वाले खर्च बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। केन्‍द्रीय सरकार का कुल खर्च जो 1950-51 में 504 करोड़

रूपये था वह बढ़कर 2012-13 में 14,30,825 करोड रूपये का हो गया । सार्वजनिक व्‍यय  में

वृद्धि के परिणामस्‍वरूप व्‍यक्तियों की आय तो बढ़ गयी परन्‍तु उत्‍पादन में भी व‍िशेष प्रकार से वृद्धि

नहीं हो पायी । अत: वस्‍तुओं की मॉंग बढ़ने पर कीमते बढ़ गयीं। 


3) घाटे की व‍ित्‍त व्‍यवस्‍था - योजनाओं में व‍िभिन्‍न परियोजनाओं के लिए साधन  के जुटाने के  लिए सरकार ने घाटे 

की व‍ित्‍त व्‍यवस्‍था अर्थात नयी मुद्रा के सृजन का सहारा लिया है। जिसके परिणामस्‍वरूप

बाजार  में उपलब्‍ध वस्‍तुओं की तुलना में मुद्रा की मात्रा बढ़ गयी और कीमते तेजी से बढ़ी। 


4) मुद्रा - पूर्ति में वृद्धि - जनता के पास मुद्रा के पूर्ति में तेजी से वृद्धि का भी कीमतों को बढ़ाने में महत्‍वपूर्ण

योगदान रहा है। जनता के पास मुद्रा (नोट, सिक्‍के  तथा जमा-मुद्रा) 1950-51 में 2,020

करोड रूपये थी जो कि बढ़कर 2010-11  में  64,99,548 करोड रूपये हो गयी।

मुद्रा की पूर्ति के  बढ़ जाने व उत्‍पादन में उतनी  वृद्धि न हो पाने के कारण कीमतें बढ़ गयी। 


5) व‍िदेशी व‍िनिमय कोष में वृद्धि - पिछले कुछ वर्षों में भारत देश के व‍िदेशी व‍िनिमय कोषों में तेजी  से  वृद्धि हुई है।

जिसके कारण व‍िदेशों में रह रहे भारतीयों द्वारा देश में  व‍िदेशी मुद्रा भेजना व सरकार द्वारा

इन जमाओं पर ऊॅंची ब्‍याज देना, करों में छूट देना आदि  नीतियॉं प्रमुख  है। विदेशी व‍िनिमय के

अन्‍तर्प्रवाह से भारत में वस्‍तुओं व सेवाओं की मॉंग तेजी से बढ़ी है। जिससे कीमतें बढ़ गयी है। 


6) प्रशासित कीमतों में वृद्धि - अनेक वस्‍तुओं, जैसे - पेट्रोल, कोयला, इस्‍पात, सीमेन्‍ट आदि की कीमतों सरकार द्वारा

निर्धारित करती है। पिछले वर्षों में अपने घाटे को कम करने के लिए सरकार ने इन वस्‍तुओं

की कीमतों में तेजी से वृद्धि की है। इसके अतिरिक्‍त सरकार कृषि पदार्थों के न्‍यूनतम समर्थित मूल्‍य

व वसूली मूल्‍यों की घोषणा करती है। पिछले वर्षों में सरकार ने इन मूल्‍यों में वृद्धि की है।

इस सबके परिणामस्‍वरूप कीमतों की प्रवृति तेजी से बढ़ रही है। 


7) अपर्याप्‍त कृषि व औद्योगिक उत्‍पादन - भारत में ज्‍यादातर कृषि आज भी मानसून पर निर्भर करती है। जिसके कारण

कृ‍षि के उत्‍पादन में भारी मात्रा में उतार चढ़ाव होते रहे है। जब मानसून ने साथ नहीं देता है

तो जितना लक्ष्‍य  पूरे नहीं हो सके और कृषि वस्‍तुओं की कीमतें बढ़ गयी । इसी प्रकार औद्योगिक

उत्‍पादन में वृद्धि सन्‍तोषजनक नहीं रही  है। उपभोग वस्‍तुओं का उत्‍पादन मॉंग के अनुरूप नहीं

बढ़ सका है। इस सबके परिणामस्‍वरूप कीमत बढ़ गया। 


8) जमाखोरी एवं सट्टेबाजी - भारत देश में कीमत वृद्धि का एक कारण जमाखोरी व सट्टेबाजी की प्रवृत्तियॉं है।

कीमतो के  बढ़ने की आशा होने पर लाभ कमाने के लिए उत्‍पादक व व्‍यापारी काले धन से

बड़ी मात्रा में वस्‍तुओं का संग्रह कर  लेते है। वर्ष 2003 से वस्‍तुओं विशेषकर खाद्यान्‍नों व दालों के

वायदा कारोबार से इस प्रवृति को ओर बढ़ावा मिला है। जिसके  परिणामस्‍वरूप वस्‍तुओं की पूर्ति

कम हो जाती है इसके कारण कीमतें बढ़ने लगती है। 


9) आयात की ऊँची कीमतें - भारत में कीमतेां में वृद्धि का एक कारण आयातित वस्‍तुओं की कीमतें बढ़ने है हमें पेट्रोल,

उर्वरक, रसायन, खाद्य  तेल आदि वस्‍तुओं का बड़ी मात्रा में लाया जाता है। और इनकी ऊँची

कीमत को चुकाना पड़ता है। 



इसे भी पढे -

  1. कीमत वृद्धि के परिणाम

  2. कीमत वृद्धि रोकने हेतु सरकारी उपाय 

  3. कीमत वृद्धि के उपचार हेतु सुझाव 

  4. कीमतों की भूमिका बताइए

  5. भारत में कीमतों की प्रवृति समझाइए 

  6. कीमत वृद्धि के परिणाम समझाइए 

  7. भारत में कीमत वृद्धि के उपचार हेतु पॉंच सुझाव दीजिए 


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