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भारत में आर्थिक सुधार 1991 भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम के उद्देश्य क्या हैं? आर्थिक सुधार की आवश्यकता

 भारत में आर्थिक सुधार 1991
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1991 से आर्थिक सुधार कार्यक्रम 

जब नरसिंह राव की सरकार बनने पर अनेक प्रकार से आर्थिक सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किए गए तथा इन आर्थिक सुधार के कार्यक्रम को आर्थिक नीति कहा जाता है आर्थिक नीति का अभिप्राय एक ऐसा उदारीकृत नीति से है जिसमें निजी क्षेत्र की भूमिका को का बिल में ना हो सार्वजनिक क्षेत्र को दिए जाने अनुदान समाप्त हो वियोग बढ़ाएं समाप्त हो तथा विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग का भारत में आवागमन बाधा रहित हो। 


आर्थिक नीति का उद्देश्य


इस नई आर्थिक नीति का प्रमुख उद्देश्य है कि निगमित क्षेत्र द्वारा देश में विनियोजित को प्रोत्साहन तथा विदेशी विनियोग का स्वतंत्र प्रवाह बनाना है ताकि उच्च तकनीकी प्राप्त हो और भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ सके।


आर्थिक सुधारो या नई आर्थिक नीति की आवश्यकता 


80 के दशक में भारत की राष्ट्रीय आई 5.6 परसेंट वार्षिक बढ़ोतरी हुई थी विकास की जिस भी रचना से अर्थव्यवस्था को निम्न से इस स्तर तक पहुंचाना संभव हुआ था वही रचना से सन 1990 1991 में अर्थव्यवस्था को धकेल कर संकट की ओर ले गई देश के सामने अनेक आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हुई और सकल राष्ट्रीय उत्पादन में भी वृद्धि दर गिर गई सन 1991-92 मैं केवल 0.5 प्रतिशत ही रह गई थी आधा सरकार के समक्ष नई नीति या आर्थिक सुधार कार्यक्रम के जलने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था।


आर्थिक सुधारो की आवश्यकता प्रमुख रूप से निम्नलिखित कारण


1 खाडी संकट

सन 1990 में जब इराक और ईरान के बीच युद्ध के कारण तेल की कीमतों पर ज्यादा वृद्धि हो गई जिसके कारण भारत की समष्टि आर्थिक समस्याओं को बढ़ा दिया था विदेशी भुगतानों की समस्याओं को निपटने के लिए देश का 47 टन सोना इंग्लैंड को गिरवी रख कर 60 करोड़ डॉलर का ऋण प्राप्त किया गया। सन 1990 के दशक के समय देश में राजनीतिक अस्थिरता भी थी यह सब के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतरराष्ट्रीय विश्वास की कमी आ गई ।जिसके कारण अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजार का स्तर भी बहुत नीचे हो गया।


2. राजकोषीय घाटे में वृद्धि

सन् 1991 से पूर्व सरकार के गैर-विकास व्यय में निरन्तर वृद्धि के कारण राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा था। राजकोषीय घाटे से आशय सरकारी राजस्व प्राप्तियों एवं अनुदान से मिली राशि से ऊपर सरकारी व्यय होता है।

सकल राजकोषीय घाटा जो 1981-82 में सकल घरेलू उत्पाद का 5.4 प्रतिशत था वह बढ़कर 1990-91 में 8.4 प्रतिशत हो गया था। राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए सरकार क्योंकि ऋण प्राप्त करती है अतः सरकार के ऋणों में अत्यधिक वृद्धि हो गयी। ऋणों पर दिये जाने वाला ब्याज सरकार के राजस्व का 36.4 प्रतिशत हो गया। देश के समक्ष ऋण-जाल (debt-trap) में फँसने की सम्भावना उत्पन्न हो गयी। अत: सरकार के लिए आवश्यक हो गया था कि वह अपने गैर-विकासात्मक व्यय में कटौती करके राजकोषीय घाटे में कमी करे।


(3) प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की स्थिति-

देश के कुल निर्यातों व आयातों मैं होने वाला अंतर को भुगतान सन्तुलन कहलाता है। जब देश के कुल आयात कुल निर्यात मूल्यों से अधिक हो जाते हैं तो भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल कहलाता है। हमारे आयातों व विदेशों से लिये जाने वाले ऋणों की मात्रा में निरन्तर वृद्धि से नब्बे के दशक के प्रारम्भ में भुगतान सन्तुलन अत्यधिक प्रतिकूल हो गये। खाड़ी के संकट ने इस स्थिति को और अधिक गंभीर दशा में पहुँचा दिया। जून सन् 1991 में भारत के विदेशी विनिमय कोष इतने कम थे कि वह 10 दिनों के आयात के लिए पर्याप्त नहीं थे। अतः इस स्थिति से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक से ऋण लेना आवश्यक हो गया और यह संस्थाएं आर्थिक सुधारो या नई आर्थिक नीति अपनाने पर ही ऋण देने को तैयार थी।


4) कीमतों में वृद्धि - सन् 1990-91 के पश्चात् कीमतों में अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई मुद्रास्फीति की औसत वार्षिक दर बढ़कर 16.7 प्रतिशत तक पहुँच गयी। खाद्य पदार्थों की कौमतों में बहुत तेजी आ गयी। वास्तव में, इसके पीछे प्रमुख कारण मुद्रा की आपूर्ति में तेजी से वृद्धि होना था। अतः इसमें सुधार हेतु राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतियों द्वारा कड़ा नियन्त्रण आवश्यक था।


(5) सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता- सार्वजनिक क्षेत्र जिसका सन् 1990-91 तक तेजी से विस्तार किया गया वह अर्थव्यवस्था के विकास हेतु संसाधन जुटाने की बजाय उस पर बोझ बन गये। अधिकांश सार्वजनिक उद्यम घाटे में चल रहे थे। केवल एकाधिकारी प्रवृत्ति के उद्योग ही लाभ प्राप्त कर रहे थे। अत: इन उद्योगों के प्रति एक नया दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक समझा गया।


  1. (6) अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ-विकसित पूँजीवादी देशों में आर्थिक मन्दी फैलने पर


इन देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो कि प्रत्येक दृष्टि से बहुत सुदृढ़ हैं, अपनी सरकारों पर दबाव डालने लगीं। यह कम्पनियाँ चाहती थीं कि उनकी सरकार विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्था स्वतन्त्र आयात-निर्यात के लिए बाध्य करें। वास्तव में, इन कम्पनियों की निगाह यहाँ के विस्तृत बाजारों पर थी विकासशील देश भुगतान सन्तुलन व ऋण प्राप्ति की समस्या से जूझ रहे थे। अतः अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व के साथ समन्वित करने व विकसित देशों की शतै मानने के अलावा इनके समक्ष और कोई रास्ता नहीं था।